समाजवादी पार्टी में चल रहे साइकिलोन से लगभग सभी वाकिफ हैं। तो हम आपकों क्या बताएं लेकिन फिर भी बाप- बेटे के इस साइकिलोन में कुछ रोचकता हैं जो हम आपकों परोसने जा रहे हैं। हमारा बस चले तो साइकिल को राष्ट्रीय वाहन घोषित कर देते क्योंकि साधारण सी दिखने वाली साइकिल से सुलभ, सस्ती, पर्यावरण रक्षण, स्वास्थ्यवर्धक और खर्च विहीन साधन सारी दुनिया में कोई दुसरा हो ही नही सकता।
आज से तीस साल पहले साइकिल को ‘बाईसाइकिल’ कहा जाता था। साइकिल हर किसी के लिए एक सपना ही हुआ करती थी। ऐसे में अगर किसी युवक या युवती के पास साइकिल होती तो वह युवक-युवती अपनी ‘गली-मोहल्ले’ का हीरो ही होता। आज के करीब 15 साल पहले हमारे काकोसा ने भी नई साइकिल खरीदी और अपनी पूरानी साइकिल हमें दुरुस्त करवाकर गिफ्ट कर दी, आज भी वो साइकिल हमारे पास हैं। पुरानी साइकिल बरसों हमारे आंगन में खड़ी रही और मुझे एक दुपहिया वाहन के मालिक होने का गौरव मिलता रहा। ये तो रही हमारी साइकिल पूराण।
साइकिल के चक्कर में हम घनचक्कर हुए तमाम गली मोहल्ले फ्री फंट में ही नाप आते थे। हाल ही में कुछ वर्षो पहले हमारा साइकिल से संबंध विच्छेद हो गया क्योंकि हमने राजधानी की और रूख कर लिया था और राजधानी में साइकिल लाने का मतलब होता अपने हाथ-पैर तुड़वाना। क्योंकि यहां साइकिल वालों को ऐसे देखा जाता हैं जैसे ‘बघेरों के गांव में बकरी’।
साइकिल से आज हमे हमारी रोमांटिक यादें भी याद आ गई। युनिवर्सिटी में पढ़ने जाते तो देर रात पूस्तकालय में पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी सहपाठिन को साइकिल के आगे वाले डंडे पर बिठाकर उसके घर छोड़ने जाते थे। उस समय एक सुखद अहसास होता था जब आगे बैठी सहपाठिन के लहलहाते केश हमारे चेहरे को छू जाते और हम हिन्दी गाना गुनगुनाने लगते।
लेकिन आज साइकिल के लिए बाप-बेटे में महाभारत सरीखा संग्राम चल रहा हैं। बेटे ने बार की साइकिल को हथिया लिया तो बाप बेटे से साइकिल छीनने पर आमादा हुआ बैठा हैं। यह तो चलता रहेगा लेकिन सरकार से हमारी गुजारिश है कि शहरों में साइकिल को समर्पित ट्रैक बनावाएं जिसेस साइकिल प्रेमी एक बार फिर अपनी साइकिल के पैडल पर अपने पांव धर सकें।