‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी
ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।’
इस कथन को भला कौन भूल सकता है। यह कथन है लाला लाजपत राय की जिन्हें शेर ए पंजाब और पंजाब केसरी कहा जाता है। आज लाला लाजपत राय की पुण्यतिथि है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल और लाल—पाल—बाल त्रिमूर्ति के प्रमुख नेता लाला लाजपत राय ने देश में लाला हंसराज के साथ दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल व कॉलेज के नाम से जाना जाता है। इसी तिगड़ी ने ही सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी और बाद में सूचना देश इनके साथ हो गया। जैसा कि पहले भी बताया गया है कि लालाजी को शेर ए पंजाब कहा जाता है। उन्हें यह नाम किसने दिया या उन्हें यह उपनाम कैसे मिला, आइए जानते हैं इसके पीछे की कहानी ….
लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के मोगा जिले में एक हिन्दू परिवार में हुआ था।
कानून की पढ़ाई के बाद उन्होंने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लालाजी की इस त्रिमूर्ति को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाता है। लालाजी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। वर्ष 1887 से 1889 के बीच भारत में आए अकाल में जब ब्रिटिश शासन ने भी अपने हाथ पीछे खिंच लिए थे, उस समय लालाजी ने अपने युवा साथियों के साथ अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की। वर्ष 1905 में ब्रिटिश सरकार ने जब बंगाल का विभाजन किया तब लालाजी ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जेसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेजों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। देश में स्वदेशी आंदोलन को चलाने और आगे बढ़ाने में भी लालाजी का बहुत बड़ा हाथ था।
एक समय वह भी आया जब अंग्रेज खुद देश में बढ़ती लालाजी की लोकप्रियता से घबराने लगे थे।
और 1914-20 लाला लाजपत राय को भारत आने की इजाजत नहीं थी। लेकिन देशभक्ति की ज्योत उनमें कम नहीं हुई, इसलिए लालाजी अमेरिका चले गए और यंग इंडिया पत्रिका का संपादन—प्रकाशन किया। न्यूयॉर्क में इंडियन इन्फॉर्मेशन ब्यूरो और इंडिया होमरूल की स्थापना की। उनके ऐसे ही कारनामों की वजह से पंजाब की जनता ने खुद ही उन्हें ‘शेर ए पंजाब’ और पंजाब केसरी जैसे उपनामों से पुकारना शुरू कर दिया। यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि खुद लोगों ने प्यार से उन्हें इस तरह की उपाधियां दी थी।
लालाजी ने हिन्दी में शिवाजी, श्रीकृष्ण और कई महापुरुषों की जीवनियाँ लिखीं। उन्होंने देश में और विशेषतः पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बहुत सहयोग दिया। देश में हिन्दी लागू करने के लिये उन्होंने हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था।
30 अक्टूबर, 1928 को लालाजी लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध आयोजित एक विशाल प्रदर्शन में हिस्सा लिया और लाठी चार्ज में बुरी तरह से घायल हो गए। इन्हीं चोटों की वजह से 17 नवम्बर, 1928 को उन्होंने अपनी जिंदगी की अंतिम सांस ली।