संविधान खंड ने मुस्लिम महिलाओं द्वारा 1400 साल पुरानी प्रथा को चुनौती देने वाली सात याचिकाओं पर जवाब दिया, जिसमें व्हाट्सप्प पर तलाक मिलने से प्रताड़ित महिला भी थी
“सभी अलग-अलग धर्मों के पांच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की एक सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आज ट्रिपल तलाक़ को अवैध बताकर ‘तीन तलाक’ या तत्काल तलाक का अभ्यास ग़ैरक़ानूनी घोषित किया। ट्रिपल तालक धर्म का एक हिस्सा नहीं है और संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करता है”, यह पांच न्यायाधीशों ने कहा जो भारत के प्रमुख धर्मों से हैं – हिंदू, ईसाई, इस्लाम, सिख और पारसी।
“कोई भी अधर्मी अभ्यास कानून के तहत वैध नहीं हो सकता है। संविधान खंड ने मुस्लिम महिलाओं द्वारा 1400 साल पुरानी प्रथा को चुनौती देने वाली सात याचिकाओं का जवाब दिया, जिसमें व्हाट्सप्प पर तलाक मिलने से प्रताड़ित महिला भी थी।
जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन और यू यू ललित ने कहा, “ट्रिपल तालक एक अनुमेय अभ्यास हो सकता है, लेकिन यह प्रतिगामी और अयोग्य है। क्योंकि यह यकायक अमल में लाया जा सकता है और बेबदल होता है, इस तरह की प्रथा आर्टिकल 14 ‘समानता के अधिकार’ के खिलाफ है।
मुख्य न्यायाधीश जे. एस. खेहार और जस्टिस अब्दुल नज़र ने मतभेद किया और कहा कि ट्रिपल तलाक़ दोषपूर्ण हो सकता है, किन्तु अदालत व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है, जो संविधान के तहत मौलिक अधिकार है।” वे इस विचार के थे कि संसद को इस अभ्यास को समाप्त करने के लिए कानून बनाना चाहिए।
मुसलमानों को निजी कानून से शासित किया जाता है जो 1937 में लागू हुआ था। नरेंद्र मोदी सरकार ने लंबे समय से तर्क दिया है कि ट्रिपल तलाक जैसी प्रथाओं ने मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।
Judgment of the Hon'ble SC on Triple Talaq is historic. It grants equality to Muslim women and is a powerful measure for women empowerment.
— Narendra Modi (@narendramodi) August 22, 2017
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी इस प्रयास की सराहना की। उन्होंने कहा “मुस्लिम महिलाओं के स्वाभिमान, सशक्तिकरण व समानता की दिशा में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह ऐतिहासिक निर्णय है।
मुस्लिम महिलाओं के स्वाभिमान, सशक्तिकरण व समानता की दिशा में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय। https://t.co/81r4iGJuWC
— Vasundhara Raje (@VasundharaBJP) August 22, 2017
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने किसी भी कोर्ट के हस्तक्षेप का विरोध किया था और यह तर्क दिया था कि अदालत को विश्वास के मामलों से बाहर रखना चाहिए।
केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि ‘ट्रिपल तालाक’ जैसी प्रथाओं ने मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति और प्रतिष्ठा पर असर डालता है और संविधान द्वारा गारंटीकृत मूलभूत अधिकारों में इसके होने से इनकार किया।